दस्यु मूरत सिंह : आतंक से आध्यात्मिकता तक की यात्रा
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बुंदेलखंड की धरती सदियों से वीरता, संघर्ष, विद्रोह और विलक्षण मानवीय कहानियों की जननी रही है। इसी धरती ने ऐसे बागी भी पैदा किए, जिन्होंने अत्याचार और उपेक्षा के बीच हथियार उठाए, रक्तपात का रास्ता चुना, परंतु अंत में आत्मस्वरूप की खोज में उसी समाज और ईश्वर की शरण में लौट आए। ऐसी ही एक महागाथा है—कभी आतंक का पर्याय रहे डकैत मूरत सिंह की, जिनका जीवन अपराध, संघर्ष, समर्पण और आध्यात्मिकता का अनूठा मिश्रण था।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
डकैत मूरत सिंह का जन्म मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के बड़ा मलहरा थाना क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले सेंदपा गांव में हुआ था। बचपन ग्रामीण कठिनाइयों, आर्थिक अभाव और सामाजिक उपेक्षा से भरा था। बुंदेलखंड के उस दौर में बागी जीवन अक्सर परिस्थितियों का परिणाम होता था—जहाँ कानून की पहुंच कमजोर थी और समाज की संरचनाएँ डगमगाई हुई थीं। इन्हीं हालातों ने युवा मूरत सिंह के भीतर विद्रोह की ज्वाला पैदा की।
आरंभ में वह कुख्यात देवी सिंह गिरोह से जुड़े, परंतु कुछ ही समय बाद उन्होंने अपना अलग गिरोह बना लिया। इस नए गिरोह में कुल 15 सदस्य थे और धीरे-धीरे यह गैंग बुंदेलखंड का भयावह नाम बन गया।
आतंक का विस्तार
देवी सिंह की मौत के बाद मूरत सिंह और पूरन सिंह संयुक्त रूप से इस गिरोह के मुखिया बने। इनकी गतिविधियाँ सागर, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दमोह और ललितपुर तक फैलीं। गिरोह डकैती, लूट, हत्याओं और फिरौती की घटनाओं में शामिल रहता था। इनका नाम सुनते ही गाँवों के लोग भयभीत हो उठते थे बुंदेलखंड के जंगलो का कठिन भूगोल इन्हें सुरक्षा देता था, और पुलिस के लिए इन्हें पकड़ पाना लगभग असंभव बन जाता था। स्थानीय लोग कहते थे कि गिरोह का हर सदस्य गोली चलाने में माहिर था और जंगलो की पगडंडियों को अपने घर की तरह पहचानता था।
मुठभेड़ों का दौर
1960 के दशक में पुलिस और डकैतों के बीच संघर्ष तीव्र होता चला गया।
21 फरवरी 1963 की रात भगवा पुलिस और मूरत सिंह गिरोह के बीच पहली बड़ी मुठभेड़ हुई। इसी मुठभेड़ में गिरोह का सदस्य भगुली मारा गया।1964 से 1966 के बीच पुलिस से कुल 7 बड़ी मुठभेड़ें हुईं, जिनमें गिरोह के 5 सदस्य मारे गए। इन मुठभेड़ों ने गिरोह की शक्ति को कमजोर तो किया, परंतु मूरत सिंह लगातार पुलिस की पकड़ से बचते रहे।
डकैतवाद के खिलाफ शासन की पहल
1970 के दशक तक बुंदेलखंड में बागी समस्या विकराल रूप ले चुकी थी। सरकार चाहती थी कि कठोर कार्रवाई के साथ-साथ एक मानवीय प्रयास भी किया जाए, जिससे डकैतों के हृदय परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त हो सके।इसी उद्देश्य से यह विषय विनोबा भावे और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सामने रखा गया। 1972–73 में लोकनायक जयप्रकाश नेतृत्व में और पुलिस के सहयोग से एक बड़ा अभियान शुरू हुआ। उद्देश्य था—डकैतों को विश्वास दिलाना कि समाज और सरकार उनके लिए पुनर्वास का रास्ता खोलेंगेइस अभियान का सबसे बड़ा परिणाम था—कुख्यात डकैत मूरत सिंह का आत्मसमर्पण।
ऐतिहासिक आत्मसमर्पण : 31 मई 1972
31 मई 1972 बुंदेलखंड के इतिहास में एक सुनहरी तिथि है। इसी दिन मूरत सिंह ने अपने गिरोह सहित आत्मसमर्पण करने का निर्णय लिया। परंतु उनकी एक अद्भुत शर्त थी—अब मैं ईश्वर से हार चुका हूँ। अपने हथियार मैं केवल भगवान भोलेनाथ के चरणों में ही रखूँगा।”स्थानीय प्रशासन की उपस्थिति में गिरोह मोली रेस्ट हाउस, बड़ा मलहरा पहुंचा। इसके बाद पूरा गिरोह जटाशंकर धाम ले जाया गया, जहाँ सभी हथियार भगवान शिव के सामने समर्पित कर दिए गए।यह दृश्य केवल अपराध का अंत नहीं था, बल्कि आध्यात्मिक जागरण की शुरुआत थी। बुंदेलखंड के लोग आज भी कहते हैं कि वह दृश्य देखने लायक था—एक समय का खूंखार बागी, अपने जीवनभर के हथियार शिवलिंग के चरणों में रख कर फूट-फूट कर रो पड़ा था।
जटाशंकर धाम से गहरा संबंध
समर्पण के बाद भी मूरत सिंह ने अपना अधिकांश जीवन जटाशंकर धाम, बिजावर में बिताया।स्थानीय लोग बताते हैं कि वह भगवान शिव के अनंत भक्त थे। बागी रहते हुए भी उन्होंने 1962 के आसपास यहाँ एक महायज्ञ आयोजित कराया था, जिसमें हजारों की भीड़ उमड़ी थी।बरसात के दिनों में वह बीहड़ में स्थित मोना सैया नामक चट्टान पर डेरा डालते थे—यह वह स्थान था जहाँ बारिश का पानी अंदर नहीं जाता। ग्रामीण विश्वास करते थे कि जब भी गिरोह किसी का अपहरण करता, तो उसे इसी चट्टान में सुरक्षित रखा जाता था।
समर्पण के बाद मूरत सिंह पूर्णतः आध्यात्मिक हो गए।
वह घंटे-दिन भगवान भोलेनाथ की आराधना में बिताते। स्थानीय लोग कहते थे कि उनके भाव बदल चुके थे—आँखों में अपराध का तेज नहीं, बल्कि भक्ति की शांति दिखने लगी थी।
जीवन का अंतिम अध्याय और मृत्यु
समर्पण के बाद मूरत सिंह अधिकांश समय घर में कटने लगा था
बीमारी ने उन्हें 1983 में कमजोर कर दिया। इसी बर्ष उनका निधन हो गया
उनकी अंतिम इच्छा थी कि अंतिम संस्कार जटाशंकर धाम में हो।
उनका संस्कार जटा शंकर धाम के निकट ही किया गया और बाद में उनके सम्मान में वहाँ एक छतरी का निर्माण किया गया।आज भी यह छतरी न केवल मूरत सिंह के जीवन के दो विपरीत अध्यायों—अपराध और अध्यात्म—की गवाही देती है, बल्कि यह बताती है कि इंसान अपने जीवन में चाहे जितना भटका हो, लौटने का मार्ग हमेशा खुला होता है।
मूरत सिंह : एक चरित्र, कई अर्थ
मूरत सिंह की कहानी बुंदेलखंड के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। यह कहानी कई प्रश्न खड़े करती है—
क्या समाज की उपेक्षा और कठिन परिस्थितियाँ किसी को अपराध की ओर धकेल सकती हैं?क्या अपराधी का हृदय परिवर्तन संभव है?क्या आध्यात्मिकता किसी अपराधी को पूरी तरह बदल सकती है?मूरत सिंह का जीवन इन प्रश्नों का उत्तर भी है और एक संदेश भी—
कि कोई भी व्यक्ति जन्म से अपराधी नहीं होता।और कोई भी व्यक्ति सुधार से परे नहीं होता।
उपसंहार
डकैत से भक्त बनने की यात्रा असाधारण है।
यह बुंदेलखंड की मिट्टी की विशेषता भी है—यहाँ बागी पैदा होते तो हैं, पर अंततः वही बागी इसी मिट्टी में शांति पाते हैंमूरत सिंह ने भी हथियारों को त्यागकर शिव के चरणों में शरण ली और अपनी बागी कथा को अध्यात्म में विलीन कर दिया।
उनकी कहानी आज भी बुंदेलखंड में सुनाई जाती है—भय, शक्ति, संघर्ष और अंततः मोक्ष की कथा के रूप में।
डॉ नरेंद्र अरजरिया पत्रकार/लेखक
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